बेटी के जन्म लेने पर यह महिला डॉक्टर नहीं लेती हैं फीस, पूरे नर्सिंग होम में बंटवाती हैं मिठाईयां

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‘मुंह मीठा कीजिए, बेटी ने जन्म लिया है’ – ये शब्द Dr. Shipra Dhar से सुनने को मिलते हैं. बेटी के जन्म पर वो फीस नहीं लेती है और पूरे नर्सिंग होम में मिठाइयाँ बंटवाती हैं.

बेटियां आजकल हर क्षेत्र में अपना अच्छा प्रदर्शन दे रही है. परिवार का नाम रोशन कर रही है फिर भी दकियानूसी सोच के चलते आज भी कई लोग हैं जो बच्चियों को बोझ से ज्यादा कुछ नहीं समझते हैं. हमारे समाज में बेटियों के साथ भेदभाव की सोच बहुत ही साधारण है.

 

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हम अक्सर सुनते हैं कि फलना को बेटी हुई है, बेचारा, फिर बेटी हुई है. यहाँ तक कि बेटियों के पैदा होने पर लोग वैसी खुशी जाहिर नहीं करते थे जैसे बेटा पैदा होने पर होती थी. लड़की होने का मतलब था कि घर में रहकर चूल्हा-चौक संभालो और परिवार की सेवा करो. देश के कई इलाकों में लिंग अनुपात में लड़कियों की संख्या लड़कों से कम है. खासकर हरियाणा,राजस्थान जैसे राज्य में यह समस्या अधिक थी. समाज लाख दंभ भरता हो कि बेटी और बेटों में कोई फर्क नहीं होता है. अक्सर महिलाओं को इस सामाजिक बुराई का सामना करना पड़ता है.

 

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बेटियां बेटों से कम नहीं हैं, लेकिन यह सामाजिक बुराई आज भी समाज में रचा बसा है. पर इस विकृत मानसिकता को पूरी तरह बदलने की जरूरत है. सरकार इस भेदभाव को मिटाने के लिए प्रयास कर रही है. वहीं समाज में कभी-कभी ऐसे उदाहरण भी सामने आते हैं जो इस मामले में उम्मीद जगाते हैं.

आज हम आपको एक ऐसी महिला डॉक्टर के बारे में बताने जा रहे है जो बेटियों और बेटों में भेदभाव करने वाले विकृत मानसिक के लोगों को मुंहतोड़ जवाब दे रही हैं. यह डॉक्टर बेटी होने पर अपने फीस नहीं लेती बल्कि पूरे नर्सिंग होम में मिठाईयां बंटवाती है.

 

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बेटी के जन्म पर नहीं लेती फीस और बंटवाती हैं मिठाईयां

डॉ शिप्रा बेटी के जन्म पर अपनी नर्सिंग होम की फीस नहीं लेती हैं और पूरे नर्सिंग होम में मिठाई बंटवाती हैं. बीएचयू (BHU) से  एमडी (प्रसूति एवं स्त्री रोग ) कर चुकीं शिप्रा धर वाराणसी में नर्सिंग होम चलाती हैं. उनकी 2001 में एमडी की पढ़ाई पूरी हुई. शादी के बाद वे खुद का नर्सिंग होम चलाने लगीं. शिपरा के इस काम में उनके पति डॉ. एमके श्रीवास्तव भी उनका बखूबी साथ देते हैं. कन्या भ्रूण हत्या को रोकने और लड़कियों के जन्म को बढ़ाना देने के लिए ये दोनों डॉक्टर दंपति लगे हुए हैं. वे बच्ची के जन्म पर परिवार में फैली मायूसी को दूर करने के लिए नायाब मुहीम चला रहे हैं. इसके तहत उनके नर्सिंग होम में यदि कोई महिला बच्ची को जन्म देती है, तो उससे कोई डिलिवरी चार्ज नहीं लिया जाता. इसकी जगह लोगों के बीच मिठाईयां बांटी जाती है.

 

अक्सर जब परिजनों को पता चलता है कि बेटी ने जन्म लिया है तो वह मायूस हो जाते हैं. गरीबी के कारण कई लोग तो रोने भी लगते हैं. इसी सोच को बदलने की वह कोशिश कर रही हैं, ताकि अबोध शिशु को लोग खुशी से अपनाएं. इसीलिए वह बेटी के जन्म पर फीस नहीं लेती हैं और बेड चार्ज भी नहीं लिया जाता. उनका वाराणसी के पहाड़िया के अशोक नगर इलाके में काशी मेडिकेयर के नाम से उनका नर्सिंग होम है. यहां बेटी पैदा होने पर जीरो बैलेंस (Zero Balance) पर जज्जा-बच्चा दोनों का इलाज होता है. यदि सिजेरियन के जरिए डिलिवरी हुई और ऑपरेशन करना पड़े तो वह भी मुफ्त है. अब तक 350 बेटियों के जन्म पर कोई चार्ज नहीं लिया गया है.

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प्रधानमंत्री शिप्रा के काम से हुए प्रभावित

आपको बता दें कि डॉ. शिप्राधर की ओर से उनके अस्पताल में बेटी पैदा होने पर कोई भी फीस न लेने की जानकारी होते ही मई में वाराणसी दौरे पर आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत प्रभावित हुए थे. पीएम ने बाद में मंच से अपने संबोधन में देश के सभी डॉक्टरों से आह्वान किया था कि वे हर महीने की नौ तारीख को जन्म लेने वाली बच्चियों के लिये कोई फीस ना लें. इससे बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओं की मुहिम को बल मिलेगा. डॉ. शिप्रा धर का मानना है कि सनातन काल से बेटियों को लक्ष्मी का दर्जा दिया गया. देश-विज्ञान तकनीक की राह पर भी आगे बढ़ रहा है. इसके बाद भी कन्या भ्रूणहत्या जैसे कुकृत्य एक सभ्य समाज के लिए अभिशाप हैं. वैसे भी जहां बेटी के जन्म पर खुशी नहीं, वह पैसा किस काम का. अगर बेटियों के प्रति समाज की सोच बदल सके तो वे खुद को सफल समझें.

 

बच्चों और परिवारों को कुपोषण से बचाने के लिए डॉ. शिप्रा धर अनाज बैंक भी संचालित करती हैं. फिलवक्त वे अति निर्धन विधवा और असहाय 38 परिवारों को हर माह की पहली तारीख को अनाज उपलब्धत कराती हैं. इसमें प्रत्येक को 10 किग्रा गेहूं और 5 किग्रा चावल दिया जाता है. होली-दीपावली पर इन परिवारों को कपड़े, उपहार और मिठाई भी दिया जाता है. उनकी इस मुहिम में अब शहर के अन्य चिकित्सक भी जुड़ने लगे हैं. डॉ. शिप्रा और उनके पति द्वारा किया जा रहा कार्य वाकई क़ाबिल ए-तारीफ़ है. हमारे समाज को इससे कुछ सीखने की जरूरत है जो बेटी-बेटों में भेद करते हैं.

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